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कविता

गाँव, घर और शहर

संदीप तिवारी


याद न करना घर की रोटी
घर का दाना
शहर की दुनिया में जब आना
मत घबराना
बड़ी खोखली है यह दुनिया
थोड़ी चोचली है यह दुनिया
किसिम-किसिम के जीव यहाँ पर
इनसे बचकर आना-जाना
मत घबराना...

शहर की दुनिया में जब आना
गली शहर की मुस्काती है
फिर अपने में उलझाती है
इस उलझन में फँस मत जाना
शहर में रुकना है मजबूरी
गाँव पहुँचना बहुत जरूरी
गाँव लौटना मुश्किल है पर
मत घबराना...

समय-समय पर आना-जाना
चाहे जितना बढ़ो फलाने
स्याह पनीली आँखों से तो
मत टकराना
धीरे-धीरे बढ़ते जाना
कुछ भी करना,
हम कहते हैं घूँस न खाना
शहर की दुनिया में जब आना
मत घबराना...

जब भी लौटा हूँ मैं घर से
अम्मा यही शिकायत करती
झोला टाँगे जब भी निकले
मुड़कर कुछ क्यों नहीं देखते
अब कैसे तुम्हें बताऊँ अम्मा
क्या-क्या तुम्हें सुनाऊँ अम्मा
तुमको रोता देख न पाऊँ
तू रोये तो मैं फट जाऊँ...
सच कहता हूँ सुन लो अम्मा...
यही वजह है सरपट आगे बढ़ जाता हूँ
नजर चुराकर उस दुनिया से हट जाता हूँ
आँख पोंछते रोते-धोते थोड़ी देर तक
पगडंडी पर घबराता हूँ
किसी तरह फिर इस दुनिया से कट जाता हूँ


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